मेंह बरसता है तो धरती की नज़र झूमती है फूल खिलते हैं तो गुलशन पे निखार आता है लेकिन ऐ जश्न-ए-बहाराँ के नए मंतज़िमो ख़ुद-फ़रेबी से कहीं दिल को क़रार आता है तुम अगर जश्न-ए-बहाराँ भी कहोगे इस को मौत के घाट ये धोका भी उतर जाएगा बाद-ए-सरसर को अगर तुम ने कहा मौज-ए-नसीम इस से मौसम में कोई फ़र्क़ नहीं आएगा ये गुलिस्ताँ ये गुलिस्ताँ में सिसकते ग़ुंचे अपने आमाल के पर्दे में इन्हें ढाँप तो लो इक़्तिदार आज भी सरगर्म-ए-सफ़र है लेकिन बे-नवाओं के इरादों को ज़रा भाँप तो लो आज इंसान की अज़्मत ने किया है एलान ख़ुद-फ़रेबी से कोई जी को न बहलाएगा जब तक आराइश-ए-गुलज़ार नहीं हो जाती किसी कोंपल किसी ग़ुंचे को न चैन आएगा लेकिन ऐ जश्न-ए-बहाराँ के नए मुंतज़िमो ये तमाशा हमें बे-कार नज़र आता है मेंह बरसता है न धरती की नज़र झूमती है फूल खिलते हैं न गुलशन पे निखार आता है