जो मुझ पे बीती है उस की तफ़्सील मैं किसी से न कह सकूँगा जो दुख उठाए हैं, जिन गुनाहों का बोझ सीने में ले के फिरता हूँ, उन को कहने का मुझ को यारा नहीं है, मैं दूसरों की लिखी हुई किताबों में, दास्ताँ अपनी ढूँढता हूँ जहाँ जहाँ सरगुज़िश्त मेरी है ऐसी सतरों को मैं मिटाता हूँ रौशनाई से काट देता हूँ मुझ को लगता है, लोग उन को अगर पढ़ेंगे तो राह चलते में टोक कर मुझ से जाने क्या पूछने लगेंगे!