शाम हो आम सी शाम हो जिस की हद-बंदियों में क़फ़स भी हों और आशियाँ भी हवाओं की आहट पे खुलते दरीचे भी हों आईनों में घिरे नन्हे मुन्ने परिंदों का रक़्स-ए-दम-ए-वापसीं हर नफ़स पर-ब-पर यूरिश-ए-राएगाँ भी आम सी शाम हो लेकिन इस शाम के रास्ते मेरे घर जा रुकें घर की दहलीज़ पर मेरी माँ मुस्कुराते हुए मेरे गिर्यां दिनों की थकन चूम ले शाम की सरहदों से मुअज़्ज़िन पुकारे तो सब भाई बहनों की चुप में मिरी चुप भी हो शाम की सेज पर बाप के जिस्म से मेरे बाज़ू उगें जब मुंडेरों पे रक्खे दिए जगमगाने लगें टूटते फ़र्श पर मेरा भी अक्स हो मेरा भी नाम हो आम सी शाम हो शाम सी शाम हो