ख़याल के दस्तर-ख़्वान से लज़ीज़ ज़ाइक़े चखती मोहब्बत अधूरी ज़ियाफ़त से भूक मिटाने की आदी है गर्म फ़ज़ा जोशीली रेत से मस्ती में मगन है जिस सहरा के दामन में मेरा ख़ेमा गड़ा है वहीं कुछ फ़ासले से मेरा घोड़ा चाबुक के रक़्स का मुंतज़िर है नक़्शे पर उभरे दरिया की तरफ़ पेश-क़दमी का इजाज़त-नामा तो मिल चुका मगर मैं ख़ुद-अज़िय्यती की तारीख़ी तरतीब में रद्द-ओ-बदल से इंकारी हूँ जिस वादी में मुस्कुराहटों का ज़ाफ़रानी सूरज और वस्ल के कासनी चाँद का बसेरा है मैं उस मस्कन की तरफ़ नहीं लौट सकती अगरचे मेरी मजबूर मोहब्बत मेरी ख़ुद-साख़्ता ज़द से तंग है मगर मैं क्या करूँ मैं ने महरूम इंसानों के मुश्तरका सरमाए में अपना हिस्सा डाल रखा है