हिसार-ए-तश्कीक तोड़ कर तुम उठो ज़मीं से फ़लक पे पहुँचो फिर इस जहाँ पर निगाह डालो ख़ुदा-रा अपना मक़ाम समझो शुऊर-ए-मख़्सूस जो वदीअत हुआ है तुम को ज़रा तुम उस से जो काम ले लो तो शोर-ए-शब-ख़ूँ जो हर तरफ़ है ये ख़ुद-ब-ख़ुद ही ख़मोश होगा ये उल-अतश की सदा जो हर सम्त उठ रही है तुम उस पे लब्बैक कह कर अपनी फ़ुरात का दर ख़ुदा-रा खोलो! ख़िज़ाँ की महफ़िल में रंग-ओ-बू के मुज़ाकरे की सबील तुम हो तुम्हारे शानों पे ज़िम्मेदारी है कितनी समझो! कि मुनहसिर है बक़ा-ए-आलम फ़क़त तुम्हीं पर