जुज़ तिरी आँखों के किन आँखों ने लुत्फ़ का हाथ रखा दर्द की पेशानी पर प्यार की आँखों से आँसू पोछे नर्मियाँ लम्हा-ए-वस्ल की मानिंद दिल-ओ-जाँ में उतरती ही चली जाती हैं हिज्र की शाम है ढल जाएगी वस्ल का लम्हा गुरेज़ाँ है पिघल जाएगा तेरे रुख़्सार की दहकी हुई रंगीन शफ़क़ और भी सुर्ख़ हुई तेरे सुलगे हुए होंटों के महकते शोले और भी तेज़ हुए कब छलक जाए न जाने तिरी लबरेज़ वफ़ा आँखों से महर की मय कब निकल आए तिरे प्यार का चाँद तोड़ दे हल्क़ा-ए-ज़ंजीर-ए-शब-ओ-रोज़ कि ये सिलसिला-ए-कर्ब-ओ-अलम ख़त्म तो हो और हो जाए जुनूँ आवारा तू मिरे हल्क़ा-ए-आग़ोश में आ