वक़्त का ऐसा ये जज़ीरा है जहाँ दिन और रात कुछ भी नहीं ज़ेहन-ओ-दिल अब हैं ऐसे आलम में होश-ओ-बे-होशी में नहिं कुछ फ़र्क़ अज्नबिय्यत है एक ख़ला है ये यहाँ ख़ुद का पता नहिं मिलता फिर भी कुछ तो सुनाई देता है चंद आवाज़ें और एक दस्तक हर सदा का कुछ ऐसा लहजा है जैसे दहशत हो दर्द हो मौजूद जैसे इस्मत को कोई ख़तरा हो हर सदा कर रही है ये मिन्नत खोल दो खोल दो किवाड़ अपने वक़्त गुज़रा दिमाग़ जाग गया दिल ने भी ये सदाएँ सुन ही लीं हम समझते थे तुम तो शाएर हो नर्म दिल होगे मेहरबाँ होगे हम को अपने यहाँ शरण दोगे मैं नय जाना कि मेरी डेवढ़ी पर ज़ख़्मी हालत में कुछ पड़े थे ख़याल कुछ हरे ज़ख़्म चंद ताज़ा मलाल अन-सुने जुमले अन-कहे अल्फ़ाज़ इस्तिआ'रात ज़ाविए जज़्बात अन-छुए कुछ मुहावरे इल्हाम सब की आँखों में था बस एक सवाल कब करोगे हमारा इस्तिक़बाल