कभी ऐसा भी करना By Nazm << मज़हब-ए-इंसानियत अपनी ज़ात की चोरी >> कभी ऐसा भी करना शाम की दहलीज़ पर पल-भर को रुकना डूबते सूरज का मंज़र देखना और सोचना कि शाम की गहरी उदासी का सबब क्या है मुसाफ़िर जब थका-हारा सर-ए-मंज़िल कभी तन्हा उतरता है तो क्या महसूस करता है Share on: