सुब्ह शाम रातों में सोचती रहती हूँ कुछ बे-सबब ख़ला में निहारती रहती हूँ कभी मेरी आँखों के आगे कुछ लफ़्ज़ रक़्स करने लगते हैं लेकिन जब कभी मैं इन लफ़्ज़ों को काग़ज़ के कोरे बदन पर टाँकना चाहती हूँ तो ये लफ़्ज़ उड़ कर हवा में तहलील हो जाते हैं और आँखों के आगे महज़ धुआँ सा रह जाता है कभी सोचा है तुम ने कि ऐसा क्यों होता है कि छत की मुंडेर पर बैठी हज़ारों मील का सफ़र तय कर लेती हूँ जब कि तुम साथ नहीं होते अलबत्ता तुम्हारा लम्स तुम्हारी ख़ुशबू मेरी हम-सफ़र होती है कभी सोचा है तुम ने कि आँखें क्यों मुज़्तरिब रहती हैं नींदें क्यों रूठी हुई हैं क्या कोई लम्हा वस्ल की सूरत जुदाई का कर्ब तन्हाई का अज़ाब जज़्ब करने वाला है