गुल-ज़मीना! सुनो तोदा-ए-ख़ाक पर अपनी कोंपल सी उँगली से क्या लिख रही हो? गुल-ज़मीना ने शर्बत भरी आँखें ऊपर उठाईं और कहने लगी... कुछ ही दिन क़ब्ल ये तोदा-ए-ख़ाक ही मेरा स्कूल था मैं ने अल्लाह का नाम या-हाफ़िज़ो उस की दीवार पर लिख दिया था मेरे काग़ज़, क़लम, और किताबें मेरे कुँबे के हम-राह सब मिट चुके हैं मैं यहाँ रोज़ आती हूँ अपनी यादों के बस्ते से पिछले सबक़ ढूँढती हूँ सफ़्हा-ए-ख़ाक पर उन को लिखती हूँ और लौट जाती हूँ मेरी क़िस्मत में पढ़ना नहीं है न हो! मेरा आमोख़्ता मेरा लिखना तो जारी रहे