चाँद ने मुस्कुरा कर कहा दोस्तो क़िस्सा-ए-दर्द छेड़े सर-ए-राह कौन फिर भी तारे मुसिर थे कि हम आज की शब सुनेंगे वही अन-सुनी दास्ताँ देर तक चाँद सोचा किया दूर आफ़ाक़ की सम्त देखा किया और तारों की आँखें छलकती रहीं रात के दामन-ए-तर को आहिस्ता आहिस्ता लम्हों का ठंडा लहू जज़्ब हो हो के रंगीन करता रहा ना-गहाँ एक नादीदा ज़र्रीं रक़म दस्त-ए-सीमीं बढ़ा और उफ़ुक़-ता-उफ़ुक़ एक जुम्बिश में खींचे हज़ारों करोड़ों तलाई ख़ुतूत डूब कर रह गए शब के सारे नुक़ूत चश्म-ए-आफ़ाक़ से अव्वलीं क़तरा-ए-दर्द टपका किसी बर्ग-ए-नौ-ख़ेज़ पर अक्स-ए-अंजाम रुख़्सार-ए-आग़ाज़ पर