लौह का रास्ता, धूप के शामियानों से ढाँपा हुआ अजनबी अजनबी चाप सुनता रहा... साथ चलता रहा और फिर एक दिन... दस मोहर्रम की आँखों से निकला हुआ इक सुनहरी कँवल यूँ उछाला उफ़क़ की शफ़क़ झील में... शाम के वक़्त ने जैसे इबलीस सिक्का कोई फेंक दे रहम-ए-तारीख़ के सुर्ख़ कश्कोल में आसमाँ रुक गया... रुक गया आसमाँ सो गया इजतिमाई लहद में कहीं ज़िंदगी का दमिश्क़ मैं ने सोचा कि ऐसे में बहता नहीं अश्क-ए-आब-ए-फ़ुरात रास्ता रोक पहले... पड़ाव के ख़ेमे लगा और फिर शाम की बाज़-गश्तों में बहती अज़ाँ मुझ से कहने लगी वक़्त को ज़ाए करना गुनाह-ए-कबीरा से भी बढ़ के है क़िबला-रू हो के लब्बैक मैं ने कहा कोई शह-ए-रग के अंदर से कहने लगा कि नमाज़ें क़ज़ा लौट सकती हैं लेकिन क़ज़ा साअतें लौट सकती नहीं!