नसीम-ए-ख़ुल्द बे-ख़ौफ़ी से मेरे घर में दर आई कहा मैं ने कि तुम कब शोला-ए-जव्वाला बन जाओगी ख़ाशाक-ए-दिल-ओ-जाँ को जला कर ख़ाक करना है बदन पर थरथरी तारी है दीवारें लरज़ती हैं वो ठंडक है कि बालों की जड़ों में ख़ून जमता जा रहा है हर कड़ी छत की सिकुड़ कर चश्म अफ्यूँ-नोश के मानिंद छोटी होती जाती है वो देखूँ वो रही इक गुर्बा-मिस्कीं छुपी कोने में बैठी है अब इन तकती हुई आँखों के भूरे मल्गजे बादल गुल-ओ-लाला शरर बरसा नहीं पाते वो ठंडक है कि क़ल्ब होश यख़-बस्ता हुआ जाता है तुम कब शोला-ए-जव्वाला बनने वाली हो बोलो नसीम-ए-ख़ुल्द बोली मिरे तार-ए-नफ़स में यूँ निहाँ सफ़्फ़ाक लाली है लहू जैसे रग नाज़ुक में पोशीदा मुझे आग़ोश में ले कर निचोड़ो तुम तो अंगारे टपकते देख पाओगे मुझे मुट्ठी में भर कर मुँह में रख लो पी के देखो वो सुनहरा तीर हूँ मैं जो गले में चुभ के बन जाता है अँगारा तुम्हें जलना नहीं आता