काश मैं होता एक परिंदा काश मैं होता एक परिंदा जगह जगह की सैर को जाता सब मुल्कों की ख़बर भी लाता जब थक जाता तब मैं गाता गाते गाते मैं सो जाता काश मैं होता एक परिंदा काले बादल जब छा जाते गड़ गड़ गड़ करते आते पानी का पैग़ाम सुनाते तब मैं मीठी तान उड़ाता काश मैं होता एक परिंदा अपने को आज़ाद मैं पा कर दाना दुन्का सब कुछ खा कर नीले से आकाश में जा कर धीरे धीरे मैं मंडलाता काश मैं होता एक परिंदा गड़ गड़ गड़ गड़ बादल आते रिम-झिम रिम-झिम बरसा लाते उम्दा सा इक साज़ मिलाते तब मैं गीत सुहाना गाता काश मैं होता एक परिंदा राम धनक या क़ौस-ए-क़ुज़ह में पृथ्वी से आकाश की राह में झूला जो है एक फ़ज़ा में 'कौकब' उस में झूलने जाता काश मैं होता एक परिंदा