मैं आगही के इस भयानक दौर से गुज़र रही हूँ जहाँ तमाम लफ़्ज़ खोखले और बे-मा'नी लगते हैं जहाँ तमाम सच झूट लगते हैं जहाँ इंसानों के नक़ाब में शैतान दिखाई दे जाते हैं जहाँ हर बात ऊपरी और बे-मक़्सद सी लगती है जहाँ हर रिश्ता मतलबी और ख़ुद-ग़रज़ दिखाई देता है काश एक बार फिर से दुनिया हुसैन नज़र आने लगे काश एक सुब्ह मैं सो के उठूँ तो मेरी आँख वहाँ खुले जहाँ मैं ने पहला ख़्वाब देखा था