एक अँधियारे कोने में कुछ डरा डरा कुछ सहमा सा बैठा था एक अजनबी मन में एक ख़ौफ़ लिए कहीं चाँदी की चमक उसे अंधा न कर दे या पैसे की खनक पागल न कर दे माज़ी की सोच से आँखों की खिड़की पर एक परत सी चढ़ गई नमी की फिर जो देखा मुस्तक़बिल की ओर नज़र आया कुछ भी नहीं एक धुँद के सिवा अपनी जड़ें काट कर चल तो पड़ा शहर की ओर मगर इस बे-मुरव्वत जहाँ के दस्तूर से ना-वाक़िफ़ था वो अजनबी जो रोता है यहाँ उसे और रुलाते हैं लोग उतरी सुनहरी धूप मन के अँधेरे कोने में फिर देखा जो आँख मल ये जाना कि तक़दीर ने ला फेंका है एक ऐसे दोराहे पर जहाँ चुन पाना अपनी राह कोई आसाँ सी बात नहीं एक ओर ज़मीं पर बिछी है कलियाँ सुर्ख़ गुलाब की गुज़रती है ये राह कई दिलकश नज़रों को चूम मगर जाती है किधर एक अंधी गली की ओर दूसरा रास्ता धूल में सना जहाँ करेंगे इस्तिक़बाल चंद कीलें कुछ ख़ार राह कुछ दुश्वार है ज़रूर मगर यहाँ की फ़ज़ा पुर-कैफ़ और पुर-सुकून चल पड़ा वो अजनबी काँटों वाली राह पर पाँव से रिसते सुर्ख़ ख़ून के क़तरे बिखरे ज़मीन पर ऐसे जैसे बिछी हो हज़ारों सुर्ख़ पंखुड़ियाँ गुलाब की