वो इक शख़्स था जो अकेला था उस का कोई भी न था इक इकाई था वो और इक दिन ख़ुद अपनी इकाई में ज़म हो गया इस ने मरते हुए इक वसिय्यत लिखी जिस में लिक्खा था! ऐ आदमी! ऐ वो इक शख़्स जो मिरे मरने की पहली ख़बर सुन के दौड़े और आवाज़ दे भाइयो आओ इस का जनाज़ा उठाओ और इस आवाज़ पे कोई आवाज़ उस तक न पहुँचे और फिर मुझ से बेकस अकेले को काँधों पे अपने धरे और अकेली सी इक क़ब्र में मुझ को पहुँचा के महफ़ूज़ कर दे मेरा वो दोस्त इतना सा एहसान मुझ पर करे वो मिरी क़ब्र पर एक सादा सा कतबा लगाए और उस पर मिरा नाम लिख दे सच कहूँ इस से मैं अपनी शोहरत नहीं चाहता क्या मिरा नाम और क्यूँ वो बाक़ी रहे मैं इस वास्ते चाहता हूँ कि जब शहर के लोग ये सुन के दौड़ें कि देखो ये मशहूर है, लोग कहते हैं वो शख़्स तो मर गया सोचते हैं ये उसी की शरारत न हो ताकि हम लोग अब उस से ग़ाफ़िल रहें उस के फ़ित्ने से अपने को महफ़ूज़ समझें बस यही चाहता हूँ कि ऐसा कोई शख़्स ढूँढे मुझे तो सुहुलत हो उस को ये तस्दीक़ करने की ये शख़्स सच-मुच नहीं है वो अब मर चुका है मैं तो अब दुश्मनों के भी आराम के हक़ में हूँ क्यूँ किसी को किसी से ख़लल हो? क्यूँ किसी को नाम से एक दहशत हो? सारे इंसान दुनिया में आराम से सोएँ और ख़ुश रहें