सबक़ बस खेलने खाने का जिस को याद होता है बड़ा हो कर वो लड़का एक दिन उस्ताद होता है न आए मास्टर जिस दिन पढ़ाने मेरे दर्जे में ज़रा सी देर को उस दिन मेरा दिल शाद होता है जो मौला-बख़्श से वो पीटते हैं मुझ को मकतब में कोई समझाए उन को वक़्त भी बर्बाद होता है बनाया जाता हूँ मुर्ग़ा मैं जिस दिन अपने मकतब में तो उस दिन दर्द से ये दिल बहुत नाशाद होता है समझ में कुछ नहीं आता कि मक़्सद क्या है पढ़ने का मज़ा भी कुछ नहीं है वक़्त भी बर्बाद होता है ख़ुदा के फ़ज़्ल से जिस दिन बुख़ार आता है टीचर को तो उस दिन अपना मकतब भी बहुत आबाद होता है जो हलवा रख के अलमारी में आपी बंद करती हैं खिलाती हैं न खाती हैं पड़ा बर्बाद होता है अगर हों मेहरबाँ टीचर तो तुम देखोगे ऐ 'नूरी' सबक़ जिस को नहीं हो याद वो भी शाद होता है