काएनाती गर्द में बरसात की एक शाम

वैसे तो पहाड़ ज़मीन का सुकड़ा हुआ लिबास हैं
लेकिन जब बारिश होती है

उन की सिलवटों पर उजलाहट उग आती है
साँप की दुम सी सड़क पर चलते हुए

मौसम मुझे अपनी कुंडली में क़ैद कर लेता है
लहर-दर-लहर मुनक़सिम पहाड़ों का हुस्न

रंगों की इस धुंदलाहट में पोशीदा है
जिसे हमारी बीमार आँखें कभी मुनअकिस नहीं कर पातीं

बारिश के बअ'द
जब धरती अपने मैले कपड़े उतारती है

मैं हर शाम, राज़ों के तआ'क़ुब में
उस के दाऊदी बदन पर फैल जाता हूँ

और दीवारें फलांगता, ख़ुदा के शिकस्ता सहन में
नक़ब लगाता हूँ

मेरे वजूद में एक अंधा ख़ला फैलने लगता है
मैं देखता हूँ

आसमान में कोई उक़ाब छपा है
जो हमारी ज़िंदगियों के चूज़े उचक रहा है

मैं उन दरख़्तों से मुख़ातब होता हूँ
जिन की जड़ों में च्यूंटियाँ

अपनी मौत पर सोगवार रहती हैं
भीगी शाख़ों पर सहमे कव्वे रात भर काँपते रहते हैं

कितनी बे-रहम लगती है ज़िंदगी!
जहाँ मौत बरसती है

और लाखों साँसें बे-वक़'अत आवारा कुत्तों की तरह
मर जाती हैं

वहाँ फिर मुस्कुराता घना जंगल उग आता है
इस ला-मुतनाही वुसअत में हम साबुन पर चिमटे बाल से

ज़्यादा कुछ नहीं रहते
वक़्त जिसे, एड़ी पर जमे मेल की तरह धो डालता है

मैं अपनी ज़ईफ़ साइंसी क़ुव्वत से महसूस करता हूँ
सब से अज़ीम दुख यही है

कि काएनात हमारी दस्तरस में नहीं
इस रंजूरी सफ़र से बे-बस लौटते हुए

मैं जूतों से मिट्टी झाड़ता हूँ
और खिड़की से झाँकते उजले मंज़र में

बे-फ़िक्री की चाय पीने लगता हूँ
दूर पहाड़ों पर, मुसलसल बारिश होती रहती है


Don't have an account? Sign up

Forgot your password?

Error message here!

Error message here!

Hide Error message here!

Error message here!

OR
OR

Lost your password? Please enter your email address. You will receive a link to create a new password.

Error message here!

Back to log-in

Close