मौजों के बे-रहम कचोके सहता मैं सागर की तह तक पहुँचा पानी के अंधे सहरा में साथ ये आँखें देतीं भी क्या हाथों ही को आँख बनाया पूँजी इक छोटी सी समेटी और मुट्ठियाँ भींचे थर्राते अन्फ़ास सँभाले ऊपर आया ख़ुशी ख़ुशी मुट्ठियों को खोला जिन में थोड़े से कंकर थे दो इक ख़ाली सीप