ख़िज़ाँ मौसम नहीं है एक लम्हा है कि जिस की आरज़ू में सब्ज़ पत्ते हवा की आहटों पर कान धरते हैं गुज़रते वक़्त में साअत-ब-साअत नए पैराहनों में गुलाबी और गहरे सुर्ख़ उन्नाबी दहकते ख़ुशनुमा रंगों से ले कर ज़र्द होने तक कभी धीमे कभी ऊँचे सुरों में बात करती ख़ुशबुओं में बस-बसा कर हवा के साथ महव-ए-रक़्स होना चाहते हैं ज़मीं का रिज़्क़ बन जाने से पहले वही इक अजनबी वारफ़्तगी और रक़्स का लम्हा कहीं पर दौर-ए-आइंदा के मौसम की समाअ'त में किसी सोए हुए इक बीज में ख़्वाहिश नुमू की सर उठाती है बहुत ही प्यार से हर शाख़ के पत्ते से कहती है कि अब रिज़्क़-ए-ज़मीं बन कर किसी इक नर्म कोंपल की नुमू का आसरा बन जा ख़िज़ाँ मौसम नहीं है इक मसर्रत-ख़ेज़ तख़्लीक़-ए-अमल का आसरा है