ख़ाला ने इक मुर्ग़ी पाली कहीं सफ़ेद और कहीं है काली दिन भर कट कट करती है वो दाना डंका चुगती है वो अंडे भी देती रहती है लेकिन अभी वो कुड़क हुई है ख़ाला ने कुछ अंडे जमाए इन पर इस मुर्ग़ी को बिठाए दिन भर वो अंडे सेती है अंडों से तब चूज़े निकले छोटे छोटे नन्हे नन्हे रवी के गालों के जैसे मुर्ग़ी जिधर जिधर भी निकले चूज़े पीछे पीछे दौड़े ख़ालू ख़ुश थे देख के चूज़े ख़ुश हो कर ख़ाला से बोले चूज़े अंडों से कब निकले मुर्ग़ी बैठी कितने दिनों से ख़ाला बोली बीस और इक दिन मैं ने शुमार किए हैं गिन गिन ख़ालू बोले अब तो बेगम कल से अंडे सेते हैं हम कल में अंडे रख देते हैं घंटों में चूज़े बनते हैं ये सुन कर ख़ाला ने भाई दाँतों में बस उँगली दबाई