कुछ इस तरह के ख़ला मेरे रोज़-ओ-शब में है जो फ़ासले से किसी को नज़र नहीं आते कुछ इस तरह के तज़ादात मुझ में यकजा हैं जो अक़्ल-ओ-फ़हम के ज़ेर-ए-असर नहीं आते मिरे क़रीब जो आता है ख़ुश नहीं रहता मैं सोचता हूँ कि तू जितने फ़ासले पर था ख़ुशी के मौसम-ए-गुल-रंग में वहीं रहता