ऐ क़लम आ तुझे बोसा दे दूँ दर्द शायद कोई बेदार हुआ कि ख़लिश आज मिरे दिल में सिवा होती है दस्तकें दर्द की पहले भी तो होती थीं मगर छुप के पहले भी तो रोए दर-ओ-दीवार के साथ क्या गुनहगार न थे लोग पुराने भी मगर ग़म की दुनिया भी बहर-तौर थी आबाद मगर ग़म-ज़दा कोई तो ग़म-ख़्वार हुआ करते थे कितने पर्दे में गुनहगार हुआ करते थे हर जराहत के लिए नुस्ख़ा-ए-मरहम होता दर्द होता था मगर थम के भी कम-कम होता