मौसम-ए-सर्मा की रात जिस के सर्दी में रचे बर्फ़ीले हाथ जब भी छूते हैं मुझे कपकपा उठता हूँ मैं मैं अजब बर्ज़ख़ में हूँ अपनी बीवी का शनासा जिस्म भी अब मुझे सैराब कर सकता नहीं मेरे अंदर ख़्वाहिशों का एक प्यासा भेड़िया आज बे-कल है बहुत ख़ून-ए-ताज़ा के लिए