अपनी पिंदार की किर्चियाँ चुन सकूँगी शिकस्ता उड़ानों के टूटे हुए पर समेटूँगी तुझ को बदन की इजाज़त से रुख़्सत करूँगी कभी अपने बारे में इतनी ख़बर ही न रक्खी थी वर्ना बिछड़ने की ये रस्म कब की अदा हो चुकी होती मिरा हौसला अपने दिल पर बहुत क़ब्ल ही मुन्कशिफ़ हो गया होता लेकिन यहाँ ख़ुद से मिलने की फ़ुर्सत किसे थी!