ख़्वाब मज़दूर है रात दिन सर पे भारी तग़ारी लिए साँस की बाँस की हाँफती-काँपती सीढ़ियों पर उतरता है चढ़ता है रू-पोश मेमार के हुक्म पर एक ला-शकल नक़्शे पे उठती हुई ऊपर उठती हुई गोल दीवार के ख़िश्त-दर-ख़िश्त चक्कर में महसूर है ख़्वाब मज़दूर है! इक मशक़्क़त-ज़दा आदमी की तरह मैं हक़ीक़त की दुनिया में या ख़्वाब में रोज़ मामूल के काम करता हूँ कुछ देर आराम करता हूँ काँटों भरी खाट में प्यास के जाम पीता हूँ और सोज़न-ए-हिज्र से अपनी उधड़ी हुई तन की पोशाक सीता हूँ जीता हूँ कैसी अनोखी हक़ीक़त है कैसा अजब ख़्वाब है इक मशक़्क़त-ज़दा आदमी की तरह अपने हिस्से की बजरी उठाने पे मामूर है ख़्वाब मज़दूर है!!