सुर्ख़ ढलकते आँचल से छलकते सियाह पेचीदा ख़्वाब कि जब सोच की गहराइयों को फलाँगते हुए अपनी हदें पार करने की कोशिश करते हैं तो संग-ज़नी का अंदेशा होता है क्यूँकि अधूरे ख़्वाब-ओ-ख़याल कुफ़्र की मानिंद होते हैं वो कुफ़्र जिस पे संग-ज़नी की दफ़ा लग जाए और एक एक संग जिस्म को छूता हुआ रूह में उतरता है तो संग की सी पुख़्तगी का एहसास होता है सोच की गहराइयों से उमंडती हुई पेचीदा लहरें जब मकाँ की वुसअ'तों को टकराती हैं तो ख़्वाबों को चकना-चूर करती हुई हक़ीक़तों का मंदिर तख़्लीक़ करती हुई एक टली लगाती जाती हैं कि अब के बार कोई आए तो ख़बर हो जाए क्यूँकि बे-ख़बरी तकलीफ़ देती है