ख़्वाब-गाह By Nazm << तक़ाज़ा जहन्नमी >> ग़रज़ की मैली दराज़ चादर लपेट कर वो मुनाफ़िक़त के सियाह बिस्तर पे सो रही थी मिरी बरहना निगाह में रत-जगों की सुर्ख़ी जमी हुई है पहाड़ सी रात रेज़ा रेज़ा बिखर रही थी Share on: