लफ़्ज़ कब से मेरे ज़ह्न के सूराख़ से झाँक रहा है जहाँ ज़ुल्मत क़रनों से राज करती है और ख़याल के जाले लटके पड़े हैं औहाम की चमगादड़ें दीवारों से चिपकी हुई हैं सोच के पानी पर काई जमी है मेरे ज़ह्न के दरीचों में कोई ऐसी दर्ज़ भी नहीं जहाँ से हवा दाख़िल हो कर मायूसी की हब्स को चाट ले और कोई रौज़न भी नहीं जहाँ से रौशनी इल्हाम बन कर उतरे लेकिन लफ़्ज़ के जुगनू ने अपनी रौशनी से इस में सूराख़ कर डाला है वो देखो लफ़्ज़ देख रहा है लेकिन नहीं वो तो जा चुका है और सदियों से मुक़फ़्फ़ल ख़ामोशी करवट ले कर फिर सो चुकी है