मिरे ख़ुदा-ए-बुज़ुर्ग-ओ-बरतर ये सच है ज़ात-ओ-सिफ़ात तू है क़दीर-ए-मौत-ओ-हयात तू है कि ख़ालिक़-ए-काएनात तू है तुझी ने ज़र्रों को रिफ़अतें दीं तुझी ने फूलों को निकहतें दीं शजर हजर सब को अज़्मतें दीं तुझी ने दी थी हमारे गुलशन को वो कली भी कि जिस की ख़ुशबू मशाम-ए-जाँ में उतर गई थी वो मौज-ए-पेचाँ जो साहिलों से गुज़र गई थी हुरूफ़ के शहर-ए-बे-नवा में वो नर्म-रौ सूरत-ए-सबा थी ख़याल के दश्त-ए-बे-फ़ज़ा में वो इक बरसती हुई घटा थी इक आब-ए-जू थी समुंदरों से जो बे-कराँ थी वो शाख़-ए-गुल थी जो आप ही अपना गुलिस्ताँ थी वो सुब्ह-ए-अफ़्कार की तजल्ली जो ख़ुद-कलामी का आइना थी वो इक शब-ए-साद की घड़ी जो शफ़ीक़ माँ की कोई दुआ थी वो एक नन्ही शगुफ़्ता पत्ती ये सच है सदबर्ग से सिवा थी वो एक माह-ए-तमाम गोया हज़ार अंजुम की इक ज़िया थी मिरे ख़ुदा-ए-बुज़ुर्ग-ओ-बरतर तुझे क़सम है हमें दोबारा वो ख़ुशबुओं से भरी हँसी दे वो चाँद आँखों की रौशनी दे गुलाब लफ़्ज़ों की ताज़गी दे बहार मौसम की फिर वही गुम-शुदा कली दे कि उस के जाने से शहर-ए-हर्फ़-ओ-नवा की गलियाँ बहुत ही सुनसान हो गई हैं ग़ज़ब की वीरान हो गई हैं