किताब गुमराह कर रही है प इक यक़ीं है कि इतनी गुमराहियों के पीछे कोई तो इक राह होगी जो मंज़िलों से नहीं मिलेगी सफ़र पे जो गामज़न रखेगी ये शिर्क-ए-कोहना सफ़र की वहदानियत को मजरूह कर रहा है कहाँ की मंज़िल कहाँ है मंज़िल ये शिर्क के हैं सराब सारे हम आप हैं महव-ए-ख़्वाब सारे ये शिर्क अफ़यून बन के ख़ूँ में घुला हुआ है हुजूम-ए-मंज़िल में अब सफ़र की शनाख़्त ख़ुद एक मसअला है सफ़र ख़ला है ख़ला में जो कुछ भी हो नतीजा वही ख़ला है यही ख़ला है! ख़ला को मंज़िल के नक़्श-ए-पा से कसीफ़ करने का अहमक़ाना ख़याल छोड़ो किताब गुमराह कर रही है! सफ़र पे निकलो प मंज़िलों के मुहीब सायों की ज़द से ख़ुद को बचाए रक्खो सफ़र पे पाँव जमाए रक्खो ये सब वजूद ओ अदम के क़िस्से सफ़र में तख़्लीक़ हो रहे हैं अज़ल नहीं है अबद नहीं है ये इक सफ़र है कि हद नहीं है तो कैसे ना-हद में मंज़िलों की हदें बनाएँ ख़ला ख़ला ख़लाएँ इसी वजूद-ए-ख़ला में इंसाँ वजूद-ए-इंसान शिर्क-ए-आज़म ये एक नुक्ता है इस्म-ए-आज़म किस इस्म-ए-आज़म की जुस्तुजू में किताब तसनीफ़ हो रही है किताब तालीफ़ हो रही है वजूद-ए-इंसाँ किताब तसनीफ़ कर रहा है किताब तालीफ़ कर रहा है किताब गुमराह कर रही है