मिरी जान दश्त-ए-सुलूक में मुझे जिस मक़ाम पे छोड़ कर ये सिफ़ाल-ए-राब्ता तोड़ कर ज़रा आग लेने गए थे तुम मैं रुका हुआ हूँ उसी जगह सर-ए-मू भी आगे बढ़ा नहीं मिरी जान मुझ पे ये बार हैं मिरे आइने का ग़ुबार हैं ये तुम्हारे रेशमी तार हैं ये तुम्हारी सोज़न-ए-सीम है ये मिरी वो सादा गलीम है कोई फूल जिस पे कढ़ा नहीं मिरी जान तुम से नहीं गिला ये नसीब का है मोआ'मला मिरे वक़्त ही में लिखा न था कि तुम्हारे ख़िर्का-ए-ख़ास का कोई रंग दिल पे चढ़ा नहीं