क्या वो मैं ही था जिस ने इतनी ग़ज़लें नज़्में इतने नाटक और न-जाने क्या कुछ लिखा मेरी आँखें मीलों दूर फ़लक पर उड़ती हुई पतंगें देख के उन में फ़र्क़ बता सकती थीं बैडमिंटन के कोर्ट के आख़िरी कोने से पलक झपकने में आगे नेट पर आता था और पलट कर पल में वापस दूसरे कोने तक जाता था क्या वो मैं ही था घर की तीसरी मंज़िल पर दिन में दस बार पहुँचना कोसों पैदल चलना दौड़ लगाना दिन की थकन का रात की बेदारी में मुख़िल न होना दो दो रोज़ मुसलसल चौंसठ ख़ाने सामने रक्खे मोहरे आगे पीछे करना सब मा'मूल की बातें खाने से पहले ये कभी न सोचा क्या खाना है बाद में कभी ख़याल न आया क्या और कितना खाया गन्ने को दाँतों से छील के खा सकता था कच्चा सट्टा पक्के चने चबा सकता था शर्त लगा कर आँगन में जामुन के पेड़ की सब से ऊँची शाख़ को छू आता था क्या वो मैं ही था और वो इश्क़ के क़िस्से ख़ैर उन का ज़िक्र तो जाने ही दो उन के बयाँ की ताब नहीं है यादों के दफ़्तर में गोया अब ये बाब नहीं है