ऐ ख़ुदा फिर से हमें जहल की दौलत दे दे तू ने क्यों इल्म दिया और जहालत छीनी तू ने क्यों जन्नत-ए-हुमक़ा से निकाला हम को ज़ह्न को किस लिए होने दिया बालिग़ तू ने आस्तीनों में मिरे पल के संपोले की तरह डस लिए जिस ने मिरे सारे ही औहाम-ए-कुहन आँखें चेहरे पे कभी को हैं मिलीं कान भी हाथ भी पाँव भी पाए सब ने देखते सब हैं हर इक बात को सब जानते हैं और पामाल किया करते हैं सारे रस्ते फिर ये क्या बात है मैं गुज़रा जो इन राहों से अपनी आँखों से मनाज़िर वही देखे मैं ने जो सभी देख रहे थे जो सभी ने देखे बे-हिसी और सुकूँ से क्यों मिरे कान बजे क्यों मिरी फ़िक्र को महमेज़ हुई और जाग उट्ठा ख़यालात में महशर का हुजूम ऐ ख़ुदा फिर से हमें जहल की दौलत दे दे