अब तो शायद इसी अंदाज़ से जीना होगा उस के हर ज़ुल्म को बे-दाद को चुप-चाप सहें यूँ तो कहने को बहुत कुछ है मगर आठों पहर इक यही फ़िक्र है किस तरह कहें किस से कहें देखती आँखों से हम से तो ये होगा न कभी इस भरी बज़्म में हम सूरत-ए-तस्वीर रहें बात कहने का जो अंजाम हुआ करता है आश्कारा है किसी से भी तो मस्तूर नहीं वो जो आक़ाओं के दस्तूर को ठुकरा के बढ़ें वादी-ए-दार-ओ-रसन उन से कोई दूर नहीं हम भी शायद उसी मंज़िल में पहुँच कर दम लें दहर में ग़लबा-ए-ज़ुल्मत हमें मंज़ूर नहीं क़ैद क्या शय है सलासिल की हक़ीक़त क्या है जिस्म पाबंद सही फ़िक्र तो महसूर नहीं दिल में जो बात खटकती हो अगर दिल में रहे मस्लहत-केशी है ये शेवा-ए-मंसूर नहीं