मेरे कमरे के बड़े ताक़ में इक आईना सूरतें सब को दिखाने के लिए रक्खा है सामने आइने के बैठ के रोज़ एक चिड़ा जाने क्यूँ अक्स से अपने ही लड़ा करता है कभी पंजों से कभी चोंच से हमले कर के ये समझता है उसे जीत यक़ीनी होगी इस हिमाक़त से अगर बाज़ नहीं आएगा चोंच क्या उस की तो रग रग कभी ज़ख़्मी होगी जब कोई काम न होगा उसे लड़ने के सिवा साँस भी ले न सकेगा कभी बे-ख़ौफ़-ओ-हिरास फिर किसी दिन ये तमाशा भी नज़र आएगा नन्ही सी लाश पड़ी होगी उस आइने के पास सोचता हूँ कि मिरे मुल्क के लाखों बच्चे रोज़ आपस में इसी तरह लड़ा करते हैं फ़ाएदा इस से किसी को भी नहीं होता है कुछ न कुछ अपना ही नुक़सान किया करते हैं यही आदत जो बना ली तो वो दिन भी है क़रीब चैन से रह न सकेंगे ये लड़ाई के बग़ैर कोई भी पास से गुज़रा तो ख़ुशी का क्या ज़िक्र कुछ भी तो कह न सकेंगे ये लड़ाई के बग़ैर बे-सबब लड़ने के जज़्बे को जो रोका न गया लोग आक़िल हों कि नादान लड़े जाएँगे अपनी फ़ितरत ही बना लेंगे जो बाहम लड़ना जानवर हों कि हों इंसान लड़े जाएँगे वो मुख़ालिफ़ न सही अपना कोई अक्स सही मिल ही जाएगा उन्हें कोई झगड़ने के लिए आइने सामने रख कर यही सरकश बच्चे बैठ जाएँगे हर इक सुब्ह को लड़ने के लिए सब रहे जाएँगे आपस में अगर मिल-जुल कर हर जगह मुल्क में गुलज़ार नज़र आएँगे और अगर बुग़्ज़-ओ-अदावत का यही जोश रहा जा-ब-जा लाशों के अम्बार नज़र आएँगे