माज़ी की तजल्ली से मामूर ये काशाना एहसास-ए-मुसलमाँ को कर देता है दीवाना अल्लाह रे बेदर्दी तूफ़ान-ए-हवादिस की दुनिया में हक़ीक़त भी बन जाती है अफ़्साना आलम की निगाहों से उतरे हुए एवानो बे-साख़्ता अश्कों का हाज़िर है ये नज़राना अब हुस्न की महफ़िल में हसरत सी बरसती है वो ग़मज़ा-ए-हिन्दी हैं नय इश्वा-ए-तुरकाना ग़म अज़्मत-ए-रफ़्ता का सीने में लिए अपने सय्याह से कहता है हर ज़र्रा ये अफ़्साना सर ले के हथेली पर उभरी थी जो दुनिया में उस क़ौम को ले डूबा शुग़्ल-ए-मै-ओ-मय-ख़ाना