लम्हा By Nazm << आज़ादी का बाजा शिकवे की शाम >> साया जब भी ढलता है कुछ न कुछ बदलता है लम्हा एक लर्ज़िश है इक बसीत जुम्बिश है जैसे होंट मिलते हैं जैसे फूल खिलते हैं जैसे नूर बढ़ता है जैसे नश्शा चढ़ता है Share on: