1 मिरी ख़ल्वत के हाले में तुम्हारा ये तिलस्माती बदन इक नूर में डूबा हुआ बहता हुआ धारा ये मध-माता ये ख़ुद को सर-ब-सर भूला हुआ बेहद निराला अन-छुआ साया हवा के नर्म सोए सोए लहजे की तरह मस हो के मेरी रूह में आतिश का भड़काता हुआ साया ये साया रौशनी ही रौशनी है सर से पाँव तक ये साया ज़िंदगी ही ज़िंदगी है सर से पाँव तक ये वस्ल-ए-ताम का लम्हा वो लम्हा है कि जब ख़ुद वक़्त रुक जाता है जैसे शाम को दरिया भी रुक कर ख़ुद फ़रामोशी के गहरे साँस लेते हैं 2 उधर जब वक़्त का सय्याल धारा एक दो लम्हों को रुकता है न जाने क्यूँ मिरे अंदर लहू का तेज़-तर हो कर हरीम-ए-दिल की दीवारों से अपना सर पटकता है ये पीर-ए-रोम के मरक़द पे रक़्साँ उन ख़ुदा-आगाह दरवेशों की सूरत रक़्स करता है जिन्हें ख़ुद अपने तन-मन की कोई सुध-बुध नहीं रहती वो सर-ता-पा फ़क़त रूह-ए-ताम की तमसील लगते हैं किसी ऐसे अबद लम्हे में जिस्म-ओ-जाँ की इस वहदत का कोई नाम तो होगा सरापा रक़्स की उस हालत-ए-बे-नाम का अंजाम तो होगा तुम्ही बोलो कि उस का नाम क्या अंजाम क्या है हाँ तुम्ही बोलो गिरह खोलो