लोग कहते हैं कि पर्बत से निकल कर चश्मे किसी खोई मंज़िल की तरफ़ बहते हैं और सर-ए-शाम हवा उन के लिए चलती है जिन के महबूब बहुत दूर कहीं रहते हैं कोई पैग़ाम नहीं जिस की तवक़्क़ो हो मुझे किस लिए गोश-बर-आवाज़ हूँ मा'लूम नहीं जो कभी दिल में तमन्ना थी वो आग़ोश में है अब किधर माइल-ए-परवाज़ हूँ मा'लूम नहीं नहीं मा'लूम कि उस ग़म की हक़ीक़त क्या है अश्क बन कर मिरी आँखों से बहा जाता है लब पे आता नहीं वो जज़्बा-ए-बेताब मगर गीत बनने के लिए दिल में रहा जाता है