सोचता हूँ अपनी माँ का हक़ अदा कैसे करूँ मेरी इज़्ज़त मेरी अज़्मत का सबब है मेरी माँ मेरी ने'मत मेरी दौलत है वही इक मेहरबाँ बाइस-ए-रहमत है वो मेरे लिए जन्नत-निशाँ क्यों न फिर जी जान से उस ज़ात की ख़िदमत करूँ मेरी पैदाइश पे तकलीफ़ें उठाईं बे-शुमार मैं हुआ भूका तो दूध अपना पिलाया बार बार मुझ को सीने से लगा कर ही उसे मिलता क़रार वो सरापा मामता है और उस को क्या कहूँ दिन को दिन उस ने न समझा और न समझा शब को शब मेरी बीमारी में उस का हाल हो जाता अजब वो दुआ कर के दवा कर के भी डरती बे-सबब छीन लेती मेरी बीमारी ग़रज़ सब्र-ओ-सुकूँ मैं शरारत भी अगर करता तो वो करती थी प्यार मैं सताता भी तो वो करती थी जाँ मुझ पर निसार अल-ग़रज़ थी मेरे दम से ज़ीस्त उस की पुर-बहार उस की उल्फ़त उस की शफ़क़त का बयाँ मैं क्या करूँ साया-ए-शफ़क़त में उस के हो गया अब मैं बड़ा अब समझ सकता हूँ अपने हक़ में अच्छा और बुरा जानता हूँ ख़ूब मैं फ़रमाँ रसूलुल्लाह का मैं सिवाए कुफ़्र के हर हुक्म उस का मान लूँ ऐ ख़ुदा-ए-दो-जहाँ ऐ मालिक-ए-रोज़-ए-जज़ा हक़ अदा करता रहूँ माँ-बाप का अहबाब का दूसरों को भी मिरी जैसी सआ'दत कर अता मैं कि 'साहिल' गरचे तेरा बंदा-ए-नाचीज़ हूँ सोचता हूँ अपनी माँ का हक़ अदा कैसे करूँ