मचा कोहराम क्यूँ है घर बदलने पर अभी भी हल्के काले शीशे वाली आँख पर ऐनक लगा कर हल्क़ा-ए-याराँ में वो अक्सर चहल-क़दमी को आता है सुनाता है ग़ज़ल अपनी कभी तारों की झुरमुट में कभी रस्ते में शबनम के कभी ख़ुशबू लपेटे जिस्म पर दिल-कश फ़ज़ाओं में कभी बे-हद चमकती धूप के पीपल की छाँव में ज़रा सा चश्म-ए-बातिन को मुनव्वर कर के तो देखो लिए दरिया को हाथों में बहुत शादाँ बहुत फ़रहाँ नज़र आता है मसनद पर ग़ज़ल की वो