जाने किन रहगुज़ारों से दौड़े चले आते हैं लाशें भंभोड़ते, बू सूँघते बैठ गए हैं लोग कि बैठे हुओं को काटते नहीं! वीरानी के अक़ब में रास्तों और शाह-राहों के कोहराम और जलती-बुझती रौशनियों के तआक़ुब में फटे हुए हलक़ के साथ गाड़ियों के साथ साथ भागते हैं दीवार पर टाँग उठा चुकने के ब'अद मुआफ़ कीजिएगा फ़तह-अली-ख़ाँ साहिब! आप का अलाप, कानों में जम गया है मुर्कियाँ टूटती हैं हम रुख़्सत हो रहे हैं जीने के जवाज़ से दस्त-बरदार पटाख़ों से पतलूनें बचाते फुदकते फिरते हैं हमारी क़ौमी मौसीक़ी काफ़ूर की महक से भी ख़ाली है सड़ांद है चहार जानिब और भूँकने की आवाज़ें बे-सुर, बे-ताल जान की अमान पाऊँ तो सीधा आप ही की तरफ़ आऊँगा!