मुसाफ़िर-ए-अबदी की नहीं कोई मंज़िल यहाँ क़याम किया या वहाँ क़याम किया तिरी वफ़ा ने बड़े मरहले किए आसाँ फ़रोग़-ए-सुब्ह को तो ने फ़रोग़ काम किया सनम-कदों में बढ़ा ए'तिबार-ए-अहल-ए-हरम हरम ने दैर-नशीनों का एहतिराम किया हयात क्या है मोहब्बत की आग में जलना ये राज़ भी तिरे सोज़-ए-वफ़ा ने आम किया उठा उठा के हिजाबात-ए-चेहरा-ए-मंज़िल मुसाफ़िरान-ए-सदाक़त को तेज़-गाम किया गुज़र के दानिश-ए-हाज़िर के आसमानों से बुलंद सादगी-ए-इश्क़ का मक़ाम किया मिला जो दस्त-ए-हवादिस से ज़हर भी तुझ को बड़े ख़ुलूस से तू ने शरीक-ए-जाम किया वो दर्द तेरी ख़मोशी में था निहाँ जिस ने सुकूत-ए-नाज़ को आमादा-ए-कलाम किया सिला था तेरी रियाज़त का सुब्ह-ए-आज़ादी वो सुब्ह जिस को ग़ुलामों ने नंग-ए-शाम किया अभी तो गोश-बर-आवाज़ थी भरी महफ़िल कहाँ ये तू ने कहानी का इख़्तिताम किया ख़याल-ए-दोस्त का परतव थी काएनात तिरी इसी तलाश में गुम हो गई हयात तिरी