तबीअत जब्रिया तस्कीन से घबराई जाती है हँसूँ कैसे हँसी कम-बख़्त तू मुरझाई जाती है बहुत चमका रहा हूँ ख़ाल-ओ-ख़त को सई-ए-रंगीं से मगर पज़मुर्दगी सी ख़ाल-ओ-ख़त पर छाई जाती है उमीदों की तजल्ली ख़ूब बरसी शीशा-ए-दिल पर मगर जो गर्द थी तह में वो अब तक पाई जाती है जवानी छेड़ती है लाख ख़्वाबीदा तमन्ना को तमन्ना है कि उस को नींद ही सी आई जाती है मोहब्बत की निगूँ-सारी से दिल डूबा सा रहता है मोहब्बत दिल की इज़्मेहलाल से शर्माई जाती है फ़ज़ा का सोग उतरा आ रहा है ज़र्फ़-ए-हस्ती में निगाह-ए-शौक़ रूह-ए-आरज़ू कजलाई जाती है ये रंग-ए-मय नहीं साक़ी झलक है ख़ूँ-शूदा दिल की जो इक धुँदली सी सुर्ख़ी अँखड़ियों में पाई जाती है मिरे मुतरिब न दे लिल्लाह मुझ को दावत-ए-नग़्मा कहीं साज़-ए-ग़ुलामी पर ग़ज़ल भी गाई जाती है