किस को इक सूखे कुएँ से होगी सैराबी की आस जिस में पानी ही न हो क्या बुझ सकेगी उस से प्यास मेरी हस्ती भी रही है आज तक महरूम-ए-आब मुझ से रंगीनी के चश्मों ने किया है इज्तिनाब फिर भी लोगों को तवक़्क़ो है कि मेरी शायरी उन के दिल में हुस्न की रहने न देगी तिश्नगी और ये सच भी है कि मेरा फ़न है ऐसा कोहसार जिस से फूटे हैं सदा रानाइयों के आबशार