आज का दिन और कल जो गुज़र गया ये दोनों मेरे शानों पर बैठे हैं कल का दिन बाएँ कंधे पर जम कर बैठा मेरे बाएँ कान की नाज़ुक लौ को पकड़े चीख़ चीख़ कर ये एलान किए जाता है ''मैं ज़िंदा हूँ! बाएँ जानिब कंधा मोड़ के देखो मुझ को'' आज का दिन जो दाएँ कंधे पर आराम से पाँव फैला कर बैठा है बार बार धीमे लहजे में एक ही बात को दोहराता है ''मत देखो उस अजल-रसीदा कल को जो अब किसी भी दम उठने वाला है मुझ को देखो, बात करो, मैं चलता-फिरता आज का दिन हूँ साँस की डोरी मुझ से बंधी है क्या लेना देना है इक आसूदा-ए-ख़ाक से हम जैसे ज़िंदों को'' दाएँ बाएँ गर्दन मोड़ के दोनों की बातें सुनता हूँ गर्दन में बल पड़ जाता है कुछ सुस्ता कर फिर सुनने लगता हूँ इन की राम कहानी! शायद सच कहते हैं दोनों! माज़ी भला कहाँ मरता है? ज़िंदों से भी बद-तर, ये मुर्दा तो ज़ेहन में गड़ा हुआ है जैसे काले मरमर की सिल का कतबा हो और फिर आज का ज़िंदा पैकर? आने वाले कल के दिन तक इस को मैं कैसे झुटलाऊँ? कोई बताए मैं दो-जन्मा अपने दो शानों पर बैठे आज और कल से कैसे निपटूँ