मेरा जिस्म ये नीला गहरा फैलता पानी उस की लहर लहर से उभरा मेरे लहू का चाँद उस के अंदर फूटे तेरे जिस्म से नरम कँवल उस के उफ़ुक़ से निकला चमका मेरा सोच का सूरज कौन कहे मैं ख़ाकी हूँ मिट्टी तो बोझल बैठ गई तो बैठ गई मैं पानी का संगीत मैं बहता दरिया लहू का चाँद कँवल का झूला सोच का सूरज कैसे कैसे बहता जाए