जब मैं ख़्वाबों की सतह से गिरता हूँ वो हँसते हैं और आसमान की बिजली उन के दाँतों में फँस जाती है जब तीस दिनों की सीढ़ी से हर माह मैं नीचे गिरता हूँ वो हँसते हैं और उन के हाथ में मेरे बदन की मिट्टी है जब कच्ची सियाही और क़ैंची से लिखे हुए अख़बार से नीचे गिरता हूँ वो हँसते हैं और उन के हाथ में मेरे नाम की कलग़ी है जब हवा और धूप के हाथ से छूट के गिरता हूँ वो हँसते हैं और उन के हाथ में मेरे दिल की पत्तियाँ हैं जब महबूबा के ध्यान से नीचे गिरता हूँ वो हँसते हैं और उन के हाथ में मेरी आँख का पानी है जब मैं किताब के सच और दिन के झूट से नीचे गिरता हूँ वो हँसते हैं और उन के हाथ में मेरी उम्र के सफ़्हे हैं मैं गिरता हूँ और उन को ये मालूम नहीं मैं बिल्कुल ऐसे गिरता हूँ कि जैसे पके हुए फल में से बीज का दाना गिरता है मैं अपनी ज़मीन पे बिल्कुल ऐसे गिरता हूँ